संगती
घुमे मंदिर-मस्जिद और गुरुद्वारा,
पुजा साधु-महात्मा का चरण द्वारा,
मिला कुछ फिर ज्ञान का भंडारा,
हल्का होने लगा अज्ञानता का अँधियारा।
हो गई इतने में संगत ऐसी,
भाए मन को पर कर दे दुर ज्ञान की ज्योति।
मन तो है एक चंचल बालक,
उसे भाए केवल सुख का आलम,
वो न जाने ज्ञान का पालन।
मन की पकड़ो सदा लगाम,
सदा रखो कुसंगती का ध्यान।
संगति ही हमें बनाती,
ज्ञान की राह दिखाती।
कृष्ण सी दोस्ती कराती,
हर युद्ध में विजय दिलाती।
कुसंगति विनाश जगाती,
दानवीर की दुर्गती कराती।
बहुत ही अच्गीछा लिखा है जैसे कृष्ण ज्ञान गीता जी का अनुपम ज्ञान
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